लीवर उदरगुहा के दाएं और ऊपरी हिस्से में (दाएं हाइपोकॉंड्रियम) डायफ्राम के ठीक नीचे स्थित उदर का सबसे बड़ा अंग है, जिसका वजन 3 पाउंड और रंग गहरा भूरा होता है। लीवर हमारे पाचन तंत्र की बहुत महत्वपूर्ण ग्रंथि है, जो अनेक कार्य करती है जैसे पित्त का स्त्रवण करना, ग्लूकोज को ग्लाईकोजन के रूप में संचित करना और क्लॉटिंग फैक्टर का निर्माण करना आदि।
लीवर दाएं हाइपोकॉंड्रियम और एपीगेस्ट्रिक रीजन में स्थित एक त्रिकोणीय अंग है, जिसका कुछ हिस्सा बाएं हाइपोकॉंड्रियम में भी अवस्थित होता है। इसकी बाहरी संरचना को समझने के लिए इससे जुड़े लिगामेंट्स और इसके चारों तरफ स्थित अन्य संरचनाओं के बारे में जानना जरूरी है। इसकी बाहरी सतह को उसके संपर्क में आने वाली संरचनाओं के नाम से परिभाषित किया जाता है।
डायफ्रेग्मेटिक सतह – लीवर की अग्रिम और ऊपरी सतह (anterosuperior surface) मृदु और उत्तल होती है जो डायफ्राम के दाएं हिस्से के सीधे संपर्क में रहती है। वैसे तो लीवर उदर के अन्य अवयवों की तरह विसरल पेरीटोनियम नामक पतली और लगभग पारदर्शी सी चादर से ढका रहता है, लेकिन डायफ्रेग्मेटिक सतह का कुछ पिछला हिस्सा डायफ्राम के सीधे संपर्क में रहता है और इसे लीवर का नग्न स्थान कहते हैं, क्योंकि यह विसरल पेरीटोनियम से ढका हुआ नहीं होता।
विसरल सतह – लीवर की निचली सतह गॉलब्लाडर गुहा और पोर्टा हिपेटिस को छोड़कर यह सतह पेरीटोनियम से ढकी होती है। यह सतह आसपास की संरचनाओं जैसे दाई किडनी, दाईं एडरीनल ग्लैंड, कोलोन, ड्यूडीनम का पहला भाग, गॉलब्लॉडर, इसोफेगस और स्टोमक के संपर्क में रहने के कारण इनके आकार के हिसाब से ढल जाती है और इन्हीं के नाम से परिभाषित होती है।
लीवर के लिगामेंट्स
कई लिगामेंट्स लीवर को आसपास की संरचनाओं से जोड़कर मजबूती और स्थिरता प्रदान करते हैं। ये लिगामेंट्स पेरीटोनियम का ही हिस्सा हैं और इसकी दोहरी तह से निर्मित होते हैं।
फेल्सीफोर्म लिगामेंट – हंसिया के आकार का लिगामेंट है, जो लीवर के अग्रिम भाग को उदर की अग्र भित्ति से जोड़ता है और लीवर को दाएं और बाएं लोब में विभाजित करता है। इसके स्वतंत्र किनारे में लिगामेंटम टेरीज़ होता है जो अम्बलाइकल वेन का अवशेष माना जाता है।
कोरोनरी लिगामेंट (अग्र और पृष्ठ तह) – यह लीवर की ऊपरी सतह को डायफ्राम की निचली सतह से जोड़ता है और लीवर के नग्न स्थान को चिन्हित करता है। कोरोनरी लिगामेंट अग्र और पृष्ठ तहें मिलकर क्रमशः दायां और बांया ट्रायंगुलर लिगामेंट बनाती हैं।
लेसर ओमेंटम – लीवर को स्टोमक और ड्युडेनम के पहले भाग से जोड़ता है। इसके दो कंपोनेंट होते हैं 1- हिपेटोड्युडेनम लिगामेंट और 2- हिपेटोगेस्ट्रिक लिगामेंट, हिपेटोड्युडेनम लिगामेंट पोर्टल ट्रायड को घेरे हुए रहता है।
उपरोक्त लिगामेंट्स के अलावा लीवर का पृष्ठ भाग हिपेटिक वेन और फाइब्रस टिश्यु के द्वारा इन्फीरियर वीना केवा से जुड़ा रहता है।
हिपेटिक रिसेसेज
ये लीवर और आसपास की संरचनाओं के बीच के कुछ रिक्त स्थान हैं, जिनका चिकित्सकीय दृष्टि से खास महत्व है। जैसे इंफेक्शन होने पर इनमें पस इकट्ठा हो जाता है और एब्सिस बन जाता है।
सबहिपेटिक स्पेस – यह लीवर की निचली सतह और ट्रांसवर्स कोलोन के बीच का पेरीटोनियल स्थान है।
मोरीसन्स पाउच – यह लीवर के विसरल स्पेस और दाएं किडनी के बीच की खाली जगह है। जब व्यक्ति सीधा लेटता है तब यह सबसे गहरा रिक्त स्थान है। इसलिए जब शैयाजनित रोगी के पेट में कोई तरल होता है तो वह इसी मोरीसन्स पाउच में इकट्ठा होता है।
विदित रहे कि उदर के कई अवयव जैसे लीवर, गॉलब्लॉडर, स्टोमक, ड्युडेनम, ईलियम, कोलोन आदि एक झिल्ली से ढके रहते हैं, जिसे विसरल पेरीटोनियम कहते हैं। पेरीटोनियम का वह हिस्सा जो उदर की आंतरिक भित्ति को ढके रखता है, उसे पेराइटल पेरीटोनियम कहते हैं। दोनों पेरीटोनियम के बीच के रिक्त स्थान को पेरीटोनियल केविटी कहते हैं।
लीवर की संरचना
लीवर ग्लीसन्स केप्सूल नामक एक फाइब्रस झिल्ली से ढका रहता है। लीवर को फेल्सीफोर्म लिगामेंट दाएं और बाएं खंड (लोब) में विभाजित करता है। लीवर की विसरल सतह में दो अन्य छोटे लोब भी परिभाषित किए गये हैं, जो दाएं लोब का ही हिस्सा हैं।
कॉडेट लोब – यह लोब लीवर की विसरल सतह के ऊपरी हिस्से में इन्फीरियर वेना केवा और लिगामेंटम वेनोसम (फीटल डक्टल वेनोसम का अवशेष) से संबंधित गुहा के बीच अवस्थित होता है।
क्वाड्रेट लोब – यह लोब लीवर की विसरल सतह के निचले हिस्से में गॉलब्लॉडर और लिगामेंटल टेरीस (फीटल अम्लाइकल वेन का अवशेष) से संबंधित गुहा के बीच में अवस्थित होता है।
कॉडेट लोब और क्वाड्रेट लोब के बीच स्थित एक छोटी सी घाटी होती है जिसे पोर्टा हिपेटिस कहते हैं। लीवर की सारी रक्त वाहिनियां, बाइल डक्ट, नर्व्स आदि इसी पोर्टा हिपेटिस से लीवर में प्रवेश करती हैं।
माइक्रोस्कोपिक संरचना
माइक्रोस्कोपिक संरचना की दृष्टि से लीवर को मुख्यतः दो हिस्सों में विभाजित किया जाता है।
स्ट्रोमा – यह ग्लिसन केप्सूल का ही हिस्सा है। विदित रहे कि ग्लिसन केप्सूल लीवर को सब तरफ से ढक कर रखता है। इसमें कनेक्टिव टिश्यु और वाहिकाएं होती हैं। ग्लिसन केप्सूल मीजोथीलियम नामक झिल्ली से भी आच्छादित रहता है, जिसकी उत्पत्ति पेरीटोनियम से होती है। स्ट्रोमा का कनेक्टिव टिश्यु टाइप-3 कॉलेजन (रेटिकुलिन) का एक जाल है, जो हिपेटोसाइट और साइनुसाइड को आकार, अखंडता, और मजबूती प्रदान करता है।
पेरनकाइमा (जीवोति) – में सबसे मुख्य हिपेटोसाइट्स हैं।
हिपेटोसाइट्स
लीवर की कार्यात्मक इकाई को हिपेटिक लोब्यूल कहते हैं। हिपेटोसाइट लोब्यूल की प्रमुख कोशिका है। लीवर की 80% कोशिकाएं हिपेटोसाइट्स ही हैं, जो लीवर के सारे काम करती है। यह आकार में बड़ी और बहुतलीय (polyhedral) कोशिका है, जिसकी औसत उम्र 5 महीने होती है। इसके केंद्र में 2 से 4 बड़े और गेंदाकार न्यूक्लियस होते हैं और हर न्यूक्लियस कम से कम दो न्यूक्लियोलाई होते हैं। हिपेटोसाइट्स हिपेटिक वेन की शाखा (सेंट्रल वेन) के चारों तरफ पहिये के स्पोक्स की तरह अनियमित कतार के रूप में अवस्थित रहते हैं। इस कतार की मोटाई एक हिपेटोसाइड के बराबर होती है। हिपेटिक वेन की शाखा को सेंट्रल वेन्यूल कहना ज्यादा ठीक है, क्योंकि संरचना की दृष्टि से वह एक वेन्यूल है।
हिपेटोसाइट्स की दो कतारों के बीच की जगह 1.0-2.0 μm डायमीटर की एक नली का रूप धारण कर लेती है, जिसे हम बाइल डक्ट्यूल कहते हैं। इस डक्ट्यूल के पास की सेल मेंब्रेन्स जुड़कर इसे पूर्ण नली का रूप प्रदान करती हैं। हिपेटोसाइट्स बाइल का स्त्रवण करते हैं। यह बाइल इन डक्ट्यूल में अंदर से बाहर की तरफ प्रवाहित होता है।
हिपेटोसाइट्स की कतार साइनुसोयड्स से इस तरह घिरी रहती है कि हर हिपेटोसाइड साइनुसोयड्स में प्रवाहित हो रहे रक्त के सीधे संपर्क में रहता है। साइनुसोयड्स की भित्ति एंडोथीलियल सेल्स से बनती है जिसमें कई जगह छिद्र होते हैं। एंडोथीलियल सेल्स के बीच में भी कई स्थानों पर खाली जगह होती है। इस कारण व्हाइट सेल्स को छोड़ कर ब्लड की सारी संरचनाएं, प्रोटीन और अन्य रसायन बड़े आराम से साइनुसोयड्स के अंदर-बाहर होते रहते हैं और हिपेटोसाइट से संपर्क करते हैं।
हालांकि साइनुसोयड्स के एंडोथीलियल सेल्स हिपेटोसाइट्स संपर्क में रहते हैं, लेकिन एक-दूसरे को छूते नहीं हैं, क्योंकि एंडोथीलियल सेल्स हिपेटोसाइट्स के बीच तनिक खाली जगह होती है, जिसे स्पेस ऑफ डिस्से कहते हैं। हिपेटोसाइट्स की सतह पर अंगुलियों जैसे माइक्रोविलाई स्थित होते हैं, जो स्पेस ऑफ डिस्से में फैले रहते हैं। ये माइक्रोविलाई हिपेटोसाइट के सेल मेंब्रेन की सतह को कई गुना बड़ा देते हैं, जिससे हिपेटोसाइट और साइनुसोयड के ब्लड के बीच अणुओं की आवाजाही बहुत बढ़ जाती है।
साथ ही साइनुसोयड्स में तारे के आकार की कुछ खास कोशिकाएं भी होती रहती हैं, जिन्हें कुफर सेल्स कहते हैं, जिनमें अंडाकार न्यूक्लियस होता है। इसकी उत्पत्ति मोनोन्यूक्लियर फेगोसाइटिक सिस्टम से होती है। कुफर सेल्स शिकारी कोशिकाएं हैं, जो साइनुसोयड्स में अंदर जाकर हानिकारक जीवाणु, एंटीजन, और क्षतिग्रस्थ आर.बी.सी. का भक्षण करती हैं।
हिपेटोसाइट का साइटोप्लाज्म एसिडोफिलिक होता है, जिसमें रफ एंडोप्लाज्मिक रेटिकुलम (rER) और राइबोजोम्स होते हैं। साथ ही हिपेटोसाइट्स में निम्न संरचनाएं होती हैं, जिनकी भी चर्चा जरूरी है।
1- स्मूथ एंडोप्लाज्मिक रेटिकुलम (sER), जो टॉक्सिन्स का खातमा, बिलिरुबिन कोंजुगेशन और कॉलेस्टेरोल के निर्माण में मदद करते हैं।
2- एक हिपेटोसाइट में 1000 तक माइटोकोन्ड्रिया हो सकते हैं।
3- गोलगी नेटवर्क, जिसमें लगभग 50 छोटी गोलगी इकाइयां होती हैं जिनके ग्रेन्यूल्स में वैरी लो डेंसिटी लाइपोप्रोटीन और बाइल प्रिकर्सर स्थित होते हैं।
4- पेरोक्सीजोम्स में ऑक्सीडेज और केटेलेज नामक एंझाइम्स होते हैं, जो लीवर के डीटॉक्सीफिकेशन में मदद करते हैं, जैसे अल्कॉहल।
5- लिपिड की बुंदियां या ड्रोपलेट्स
6- ग्लायकोजन जो स्टेनिंग के बाद दिखाई नहीं देता।
7- लाइज़ोजोम्स आयरन को फेरिटिन के रूप में संचय करते हैं। स्मूथ एंडोप्लाज्मिक रेटिकुलम (sER), जो टॉक्सिन्स का खातमा, बिलिरुबिन कोंजुगेशन और कॉलेस्टेरोल के निर्माण में मदद करते हैं।
स्पेस ऑफ डिस्से में कुछ खास सेल्स होते हैं, जिन्हें आइटिओ सेल्स या हिपेटिक स्टीलेट सेल्स कहते हैं। इनका कार्य फैट की बुंदियों में विटामिन ए का संचय करना है। यह बाद में रेटिनोल के रूप में निष्कासित कर दिया जाता है। यदि लीवर में कोई खराबी आती है तब आइटिओ सेल्स कॉलेजन का स्त्रवण करने लगते हैं और लीवर में फाइब्रोसिस होना शुरू हो जाता है।
हिपेटिक लोब्यूल
क्लासिक हिपेटिक लोब्यूल
यह हिपेटिक लोब्यूल को परिभाषित करने का सबसे प्रचलित परंपरागत तरीका है। क्लासिक लोब्यूल में हिपेटोसाइट्स षठकोणीय प्लेट्स के आकार में एक के ऊपर एक व्यवस्थित रहते हैं। हर प्लेट में हिपेटोसाइट्स सेंट्रल वेन से बाहर की तरफ बढ़ते हैं और पहिये के स्पोक्स की तरह अनियमित कतार के रूप में अवस्थित रहते हैं। हिपेटोसाइट्स की दो कतरों के बीच स्थित साइनुसोयड में सेंट्रल वेन की ओर रक्त प्रवाहित होता है।
षठकोणीय क्लासिक लोब्यूल के हर कोने पर एक पोर्टल केनाल (यानि कुल छः पोर्टल केनाल होती हैं) अवस्थित होती है। हर पोर्टल केनाल में एक पोर्टल वेन की शाखा, एक हिपेटिक आर्टरी की शाखा और एक बाइल डक्ट्यूल अवस्थित रहती हैं। इसे पोर्टल ट्रायड कहते हैं। स्टोमल कनेक्टिक टिश्यू इन वाहिकओं पर आच्छादित रहता है और स्थिरता प्रदान करता है, लेकिन लोब्यूल्स के बीच में कनेक्टिव टिश्यू थोड़ा कम होता है। पोर्टल केनाल में एक चौथी संरचना भी होती है, जिसे लिम्फेटिक वेसल कहते हैं। लिम्फेटिक वेसल लिम्फ को स्प्लीन तक पहुचाती है। इसलिए आजकल पोर्टल ट्रायड को पोर्टल एरिया कहने लगे हैं।
हिपेटिक आर्टरी हृदय से ताज़ा खून साइनुसोयड्स में पहुँचाती है। इसमें ऑक्सीजन ज्यादा होती है। पोर्टल वेन स्टोमक, ड्यूडेनम और आंतों से पोषक तत्व लेकर खून को साइनुसोयड्स में पहुँचाती है, इसमें ऑक्सीजन की मात्रा कम होती है। बाइल डक्ट्यूल में बाइल अंदर से बाहर की तरफ प्रवाहित होता है। साइनुसोयड्स में खून पोर्टल ट्रायड से अंदर की ओर होता हुआ सेंट्रल वेन में पहुँचता है।
पोर्टल लोब्यूल
जहां क्लासिक लोब्यूल में हमारा ध्यान रक्त के प्रवाह और हिपेटोसाइट्स के विन्यास पर रहता है, वहीं पोर्टल लोब्यूल में हम बाइल के स्त्रवण और प्रवाह तवज्जो देते हैं। इसमें कार्यात्मक इकाई का आकार त्रिकोणीय होता है और इसके केंद्र में पोर्टल केनाल होती है। तीनो बाहरी कोनो पर सेंट्रल वेन स्थित रहती है और बाइल बाहर से भीतर की ओर आकर बाइल डक्ट्यूल में मिलता है।
लीवर एसिनस
यह एसिनस लोब्यूल हिपेटोसाइट के कार्य, चयापचय (metabolism), और रक्त प्रवाह का यथार्त चित्रण करता है। लीवर एसिनस अंडाकार कार्यात्मक इकाई है। इसका छोटा अक्ष पास के दो लोब्यूल के बीच की सीमा को दर्शाता है, जो एक पोर्टल केनाल से पास की दूसरी पोर्टल केनाल को जोड़ती है। इसका बड़ा अक्ष पास की दो सेंट्रल वेन के बीच की काल्पनिक रेखा को को दर्शाता है।
हर लीवर एसिनस को तीन संभागो में विभाजित करते हैं।
संभाग 1 – यह छोटे अक्ष के सबसे पास का संभाग है अर्थात पोर्टल केनाल और हिपेटिक आर्टरी के निकट स्थित होता है। इस संभाग के हिपेटोसाइट्स को सबसे अधिक ऑक्सीजन प्राप्त होती है।
संभाग 2 – यह संभाग 1 और संभाग 2 के बीच स्थित होता है।
संभाग 3 – यह सेंट्रल वेन के सबसे करीब और छोटे अक्ष से सबसे दूर का संभाग है। इस संभाग के हिपेटोसाइट्स को सबसे कम ऑक्सीजन प्राप्त होती है।
लीवर की धमनियाँ और शिराएं
लीवर को दो तरह की वाहिकाओं से रक्त की आपूर्ति होती है।
हिपेटिक आर्टरी (25%) – इस धमनी की उत्पत्ति सीलियक ट्रंक से होती है और यह लीवर के नॉन-पेरेनकाइमल संरचनाओं को स्वच्छ और ऑक्सीजनयुक्त रक्त पहुँचाती हैं।
पोर्टल वेन (75%) – यह शिरा आंतो से पोषक तत्वों से भरपूर लेकिन आँशिक ऑक्सीजनयुक्त रक्त लीवर को पहुंचाती है। लीवर को अधिकांश रक्त पोर्टल वेन द्वारा ही प्राप्त होता है।
हिपेटिक वेन – लीवर लोब्यूल से अस्वच्छ रक्त का निकास हिपेटिक वेन्स से होता है, जो कलेक्टिंग वेन बनाती हैं। फिर सब मिलकर रक्त को इन्फीरियर वेना केवा में छोड़ देती हैं।
लीवर की नाड़ियां
लीवर को समस्त नाड़ी संदेश हिपेटिक प्लेक्सस द्वारा मिलते हैं। इसमें सिम्पेथेटिक और पेरा सिम्पेथेटिक नाड़ी तंतु होते हैं जो क्रमशः सीलियक प्लेक्सस (सिम्पेथेटिक) और वेगस नाड़ी (पेरा सिम्पेथेटिक) से प्राप्त होते हैं। ये नाड़ियां पोर्टा हिपेटिस से लीवर में प्रवेश करती हैं और हिपेटिक आर्टरी तथा पोर्टल वेन की शाखाओं के साथ चलती हैं। ग्लिसन्स केप्सूल को नीचे की इंटर कोस्टल नर्व्स को सिग्नल देती है। यदि ग्लिसन्स केप्सूल में खिंचाव होता है तो इसमें तेज दर्द का अहसास होता है।
लिम्फ निकास
लीवर के अग्र भाग से लिम्फ का निकास हिपेटिक वाहिनियों और लेसर ओमेन्टम में थित हिपेटिक लिम्फ नोड्स में होता है। हिपेटिक लिम्फ नोड्स लिम्फ को कोलिक नोड्स में पहुँचाते हैं और उसके बाद सिस्टर्ना काइलाई में छोड़ देते हैं।
लीवर के पृष्ठ भाग से लिम्फ का निकास फ्रेनिक और पोस्टीरियर मीडियेस्टिनम नोड्स में होता है, उसके बाद लिम्फ दांई लिम्फेटिक्स और थोरेसिक डक्ट में मिलता है।
लीवर के कार्य
लीवर मानव शरीर का एक महत्वपूर्ण अंग है। त्वचा के बाद दूसरा सबसे बड़ा अंग लीवर ही है। लीवर लगभग 500 से ज्यादा विभिन्न प्रकार के कार्य हमारे शरीर में करता है जैसे रक्त में शर्करा को नियंत्रण करना, विषाक्त पदार्थ को अलग करना, ग्लूकोज को ऊर्जा में बदलना, प्रोटीन पोषण की मात्रा को संतुलन करना आदि।
पित्त का स्त्रवण
लीवर का एक प्रमुख कार्य पित्त या बाइल ज्यूस बनाना है, जो हमारे पाचन तंत्र में बहुत सक्रिय भूमिका का निर्वाह करता है। बाइल एक पीले रंग का द्रव्य है और बाइल सॉल्ट्स, कॉलेस्टेरोल, बिलिरुबिन, लेसीथिन, आइजीए (IgA) और पानी इसके मुख्य घटक हैं। बाइल का स्त्रवण लीवर की हिपेटोसाइट कोशिकाओं से होता है, जो बाइल डक्ट्स से होता हुआ गॉलब्लॉडर में इकट्ठा होता है। जब फैटयुक्त भोजन ड्युडेनम में पहुँचता है तो ड्युडेनम की कोशिकाएं कॉलीसिस्टोकाइनिन नामक हॉरमोन बनाती हैं, जो गॉलब्लॉडर को बाइल ज्यूस छोड़ने का आदेश देता है। बाइल प्रवाहित होकर ड्युडेनम में पहुँचता है और फैट्स को इमल्सिफाई करके छोटे-छोटे कणों में बदल देता है। इस प्रक्रिया से फैट्स की सतह का संपर्क क्षेत्र बहुत बढ़ जाता है और उनका पाचन आसान हो जाता है।
अब हम समझने की कोशिश करते हैं कि बिलिरुबिन कैंसे, कहाँ और क्यूं बनता है? दरअसल इसके बनने की प्रक्रिया आर.बी.सी. के टूटने से शुरू होती है। विदित रहे कि हमारे खून में लाल रंग की कोशिकाएं होती है, जिन्हें हम आर.बी.सी. कहते हैं। आर.बी.सी. में हीमोग्लोबिन नामक एक लाल पदार्थ है, जिसका काम पूरे शरीर की कोशिकाओं में ऑक्सीजन पहुँचाना है। आर.बी.सी. का औसत जीवन काल 120 दिन माना जाता है। उसके बाद बोनमेरो से आर.बी.सी. की नई खेप आकर काम पर जुट जाती है। साथ ही पुरानी आर.बी.सी. को खत्म करना भी जरूरी हो जाता है। इस कार्य का जिम्मेदारी बोनमेरो और स्प्लीन में स्थित मेक्रोफाज नामक कोशिकाओं पर होती है।
ये मेक्रोफाज कोशिकाएं (भक्षी कोशिकाएं) पुरानी आर.बी.सी. का भक्षण शुरू कर देती हैं। लीवर में स्थित कुफर सैल्स भी इसी काम में जुट जाती हैं। आर.बी.सी. नष्ट होने पर उसका हीमोग्लोबिन हीम और ग्लोबुलिन में विभाजित हो जाता है। ग्लोबुलिन एक प्रोटीन है, जो अपघटित होकर एमाइनो एसिड्स के रूप में रक्त में मिल जाता है। हीम से आयरन तो अलग होकर रक्त में मिल जाता है और बचता है पीले रंग का एक हानिकारक पदार्थ, जिसे हम बिलिरुबिन कहते हैं। यह सिर्फ फैट में घुलता है पानी या खून में नहीं, हाँ प्रोटीन के साथ मिलकर यह घुलनशील बन जाता है। इसलिए यह एल्बुमिन नामक प्रोटीन के साथ लीवर में पहुंचता है।
लीवर में यह बिलिरुबिन की ग्लूकोरोनिक एसिड से क्रिया करता है और पानी में घुलनशील कोंजुगेटेड बिलिरुबिन बनता है, जो बाइल का प्रमुख घटक बनता है और कॉमन बाइल डक्ट द्वारा छोटी आंत से गुजरता हुआ बड़ी आंत में पहुँचता है, जहाँ पर पल रहे कीटाणु इससे ग्लूकोरोनिक एसिड को अलग करके यूरोबिलिनोजन (यह पानी में घुलनशील नहीं होता है) में बदल देते हैं। यूरोबिलिनोजन का लगभग 10% हिस्सा तो एल्बुमिन को साथ लेकर पोर्टल वेन के द्वारा लीवर की ओर चल देता है और बचा हुआ 90% हिस्सा कीटाणुओं की मदद से ऑक्सीडाइज होकर स्टर्कोबिलिन बन जाता है। यह एक भूरे रंग का पदार्थ है जो मल के साथ बाहर निकल जाता है।
यूरोबिलिनोजन लीवर में पहुँच कर 5% तो पुनः बाइल में मिल जाता है और बचा हुआ 5% किडनी पहुँच कर पीले रंग के यूरोबिलिन में परिवर्तित हो जाता है, जो यूरीन के साथ बाहर निकल जाता है। यूरोबिलिन के कारण ही यूरीन हल्के पीले रंग का होता है।
चयापचय (Metabolism)
हमारे पाचन तंत्र में भोजन का पाचन संपन्न होता है। यहाँ से पोर्टल वेन पोषक तत्वों को लेकर लीवर में पहुचती है, जहाँ कई चयापचय क्रियाएं (metabolic jobs) पूरी होती हैं, ताकि कोशिकाओं को अभीष्ट तत्व मिलते रहें। अधिकांश क्रियाएं हिपेटोसाइट कोशिका में पूरी होती हैं।
पाचन तंत्र कार्बोहाइड्रेट को अपघटित करके ग्लुकोज में परिवर्तित कर देता है, जिसे कोशिकाएं ऊर्जा के मुख्य स्त्रोत के रूप में प्रयोग करती हैं। भोजन करने के बाद पोर्टल वेन द्वारा लीवर पहुँचने वाले रक्त में ग्लुकोज का स्तर बहुत अधिक होता है। हिपेटोसाइट अधिकांश ग्लुकोज को एक पॉलीसेक्राइड ग्लायकोजन के रूप में संचित कर लेता है, ताकि ब्लड शुगर का स्तर सुरक्षित दायरे में बना रहे। ज्यों ही ब्लड शुगर कम होने लगती है, ग्लायकोजन पुनः ग्लुकोज के रूप में रक्त में छोड़ दी जाती है। इस तरह हिपेटोसाइट ब्लड शुगर का संतुलन बनाए रखता है और यकायक होने वाले ग्लुकोज के उतार-चढ़ाव से शरीर के नाजुक अंगों की सुरक्षा करता है।
हिपेटोसाइट लीवर में पहुँचने वाले फैटी एसिड्स को अवशोषित करता है और ए.टी.पी. की शक्ल में ऊर्जा के स्त्रोत के रूप में प्रयोग करता है। हिपेटोसाइट ग्लीसरोल नामक एक अन्य फैट को ग्लूकोज में परिवर्तित कर देता है। इस क्रिया को ग्लुकोनीओजेनेसिस कहते हैं। हिपेटोसाइट में कॉलेस्टेरोल, फोस्फोलिपिड्स, और लाइपोप्रोटीन का निर्माण होता है, जिन्हें शरीर की कोशिकाएं आवश्यकतानुसार प्रयोग करती हैं। बचे हुए कॉलेस्टेरोल का बाइल में विसर्जन हो जाता है।
निराविषीकरण (Detoxification)
पाचन तंत्र में प्रोटीन अपघटित होकर अमाइनो एसिड्स में परिवर्तित होकर लीवर में पहुँचते हैं। विदित रहे कि अमाइनो एसिड को आप प्रोटीन की बुनियादी इकाई मान सकते हैं। लीवर में पहुँचने पर हिपेटोसाइट प्रोटीन से एमीन ग्रुप को अलग कर अमोनिया (जो एक घातक पदार्थ है) में बदल देता है जो अंततः एक कम घातक पदार्थ यूरिया के रूप में मूत्र द्वारा विसर्जित होता है। हिपेटोसाइट में विद्यमान कुछ एंजाइम्स कई टॉक्सिक तत्वों जैसे अल्कॉहल, कई दवाइयों को निष्क्रिय करके विसर्जित करते हैं। शरीर में संतुलन बनाए रखने के उद्देष्य से लीवर कई हॉर्मोन्स को बाहर का रास्ता दिखा देता है।
भंडारण
लीवर का एक अहम कार्य विटामिन, खनिज तत्व और पोषक तत्वों का भंडारण भी है। लीवर में इंसुलिन हॉर्मोन के निर्देशानुसार ग्लुकोज का ग्याइकोजन के रूप में भंडारण होता है। हिपेटोसाइट्स पाचन तंत्र द्वारा प्राप्त ट्रायग्लीसराइड्स को फैटी एसिड्स के रूप में संचित करते हैं। लीवर विटामिन ए, डी, ई, के और बी-12 तथा ऑयरन व कॉपर का भंडारण करता है, ताकि कोशिकाओं को इन तत्वों की आपूर्ति निरंतर होती रहे।
दुर्भाग्य से हीमोक्रोमेटोसिस नामक एक आनुवंशिक रोग में लीवर ऑयरन का संचय बहुत अधिक करने लगता है। आजकल कुछ जेनेटिक टेस्टिंग होती है जिससे आपको पता चल जाता है कि कहीं आपको हीमोक्रोमेटोसिस, गॉचर्स रोग या अल्फा-1 एंटीट्रिपसिन अपूर्णता की रिस्क तो नहीं है। ये रोग लीवर में कई विकार पैदा करते हैं।
उत्पादन
लीवर का काम कुछ आवश्यक प्रोटीन और प्रोटीन के घटकों जैसे प्रोथ्रोम्बिन, फाइब्रिनोजन, और अल्बुमिन आदि का निर्माण करना है। प्रोथ्रोम्बिन और फाइब्रिनोजन खून का थक्का बनाने में मदद करते हैं।
रोग-प्रतिरोधक क्षमता
लीवर के सानुसाइड्स में स्थित कुफर सैल्स इम्युन सिस्टम के बड़े ब्रिगेडियर हैं। स्प्लीन तथा लिम्फ नोड्स में स्थित फेगोसाइट्स (भक्षी कोशिकाएं) और लीवर के कुफर सैल्स मिलकर शरीर के आक्रामण विभाग का ताना-बाना तैयार करते हैं। कुफर सैल्स लीवर से गुजरने वाले रक्त-प्रवाह पर पैनी नजर रखते हैं और दिखते ही बेक्टीरिया, फंगस, परजीवी, पुराने व क्षतिग्रस्त आर.बी.सी. तथा अन्य कोशिकाओं के अवशेषों को निगल लेते हैं और चुटकियों में रक्त की अच्छी सफाई भी कर देते हैं।